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Friday, July 16, 2010

Niyati (नियति) - the whole poem

I had posted this poem in multiple parts earlier. I think it is complete now.

नियति

पानी के नाज़ुक धागों से
मैं ख़ुशी बनाया करता हूँ

दिन भर के मेरे हासिल को
नियती शाम को घायल करती है -
मैं चार धागे बुनता हूँ
वो पाँच उधेड़ा करती है।

मैं दिन भर सूरज तपता हूँ
वो रात को मेहनत करती है -
मैं चार खिलौने गढ़ता हूँ
वो पाँच बिगाड़ा करती है।

मैं नियती की गाढ़ी मेहनत को
हर सुबह मिटाया करता हूँ।

पानी के नाज़ुक धागों से
मैं ख़ुशी बनाया करता हूँ

जब मैं थक सा जाता हूँ
वो दया ज़रा दिखलाती है -
"चल दिया खेलने, खेल तू"
कहती है, इतराती है ।

मैं मीलों पानी ढोता हूँ
वो धूप बड़ा चमकाती है -
मैं महीनों अंकुर बोता हूँ
वो पल में फसल जलाती है ।

हर सावन मैं भी बारिश की
पर आस लगाए रहता हूँ ।

पानी के नाज़ुक धागों से
मैं ख़ुशी बनाया करता हूँ

मैं धीमे धीमे बढ़ता हूँ
वो ताने दे सताती है -
थोड़ा आगे जमता हूँ
तो पीछे आग लगाती है ।

मैं सोलह सपने सजता हूँ
वो शोर बड़ा मचाती है -
मैं उठता गिरता उठता हूँ
वो फिर से मुझे गिराती है ।

पर गिर कर फिर से उठने की
मैं शर्त लगाया करता हूँ ।

पानी के नाज़ुक धागों से
मैं ख़ुशी बनाया करता हूँ

जग के सारे काजों को
जल्दी निपटाना होता है -
दिल आस छोड़े उसको थोड़ा
हर शाम रुलाना होता है।

बैरी
नियती के प्रेमी को
यूँ समय बिताना होता है -
वो तोड़ सके ऐसे धागों से
ख़ुशी बनाना होता है।

मैं नियती के इस बैर को
हर सुबह भुलाया करता हूँ।

पानी के नाज़ुक धागों से
मैं ख़ुशी बनाया करता हूँ।

Tuesday, April 27, 2010

हे भविष्य

हे भविष्य

इस समय की मुठ्ठियों से
आज का पल पल बिखरता,
वर्तमान की मृत्यु देख,
देख कैसे कल सिहरता!

इन प्रलय की आहटों से
न सोच की मैं डर रहा हूँ,
मैं कवि हूँ, हे भविष्य!
मैं प्रश्न तुझसे कर रहा हूँ -

ये बता झुलस रहे
इस कल से मैं डरता रहूँ?
या जल के कुन्दन बन रहे
एक कल की कल्पना करूँ?

ये बता विद्रोह को
मैं मन में अपने मार दूँ?
या सुलगते सागरों को
विस्फोटकों से ज्वार दूँ?

जीव हो कर मृत्यु से
हार क्या मैं मान लूँ?
जीव हो कर मृत्यु से
हार कैसे मान लूँ?

चल कि दोनों मिल के हम
कुछ मुक्ति दे प्राणों को,
कुछ हवा दे शोलों को,
कुछ गति तूफानों को,

क्रांति हो कुछ इस तरह
कुछ इस तरह आ जाय प्रलय -

विध्वंस का निर्माण में
कुछ इस तरह हो जाय विलय -

कि बस अग्नि हो बच सके,

वह सूर्य हो जो ना जले,

भस्मी हो जाय सब यहाँ,

रहे तो केवल सत्य रहे ।

रहे तो केवल सत्य रहे

Friday, April 02, 2010

द पॉपर एंड द प्रिंस (The Pauper and the Prince)

द पॉपर एंड द प्रिंस (The Pauper and the Prince)

शोर से बच के जो चलते हैं

और शोर नापसंद करते हैं
साफ़ चादर साफ़ लिबास पहनकर
साफ़ भाषा से शर्म करते हैं -

पेट में दाना, घर में माँ,
सर पे छत जिनकी रही हो हमेशा -
जिन्हें मांगने की ज़रुरत न पड़ी हो कभी
देने में वो कंजूसी किया करते हैं।

भूखे रहकर आता है समझ पानी,
अकेले रहकर दुनिया समझ आती है।
ढाई अक्षर के लिए दर दर भटके नहीं जो
वो रोज़ खाने में नखरे किया करते हैं।

जान लगी ही नहीं दाँव पे कभी,
जब खेला सोने चांदी के लिए खेला,
जिन्होंने जीता तो घर भर ने ख़ुशी मनाई
वो जीतने पे बड़ा मान किया करते है।

कोई नुकीले पत्थर से, कोई मोम के तीरों से -
लड़ते सब हैं, चोट सबको लगती है, पर
हर चोट पे माँ की आवाज़ सुनते हों जो
वो शोर से ज़रा बच के चलते हैं।

Thursday, October 08, 2009

Addition to Niyati

This is an addition to the earlier Niyati poem. It already has two paras. I'd insert this one into the middle.

जब मैं थक सा जाता हूँ
वो दया ज़रा दिखलाती है -
"चल दिया खेलने, खेल तू"
कहती है, इतराती है ।

मैं मीलों पानी ढोता हूँ
वो धूप बड़ा चमकाती है -
मैं महीनों अंकुर बोता हूँ
वो पल में फसल जलाती है ।

हर सावन मैं भी बारिश की
पर आस लगाए रहता हूँ ।

पानी के नाज़ुक धागों से
मैं ख़ुशी बनाया करता हूँ

Wednesday, July 22, 2009

नियती - Niyati

पानी के नाज़ुक धागों से
मैं ख़ुशी बनाया करता हूँ

दिन भर के मेरे हासिल को
नियती शाम को घायल करती है -
मैं चार धागे बुनता हूँ
वो पाँच उधेड़ा करती है।

मैं दिन भर सूरज तपता हूँ
वो रात को मेहनत करती है -
मैं चार खिलौने गढ़ता हूँ
वो पाँच बिगाड़ा करती है।

मैं नियती की गाढ़ी मेहनत को
हर सुबह मिटाया करता हूँ।

पानी के नाज़ुक धागों से
मैं ख़ुशी बनाया करता हूँ

जग के सारे काजों को
जल्दी निपटाना होता है -
दिल आस छोड़े उसको थोड़ा
हर शाम रुलाना होता है।

बैरी
नियती के प्रेमी को
यूँ समय बिताना होता है -
वो तोड़ सके ऐसे धागों से
ख़ुशी बनाना होता है।

मैं नियती के इस बैर को
हर सुबह भुलाया करता हूँ।

पानी के नाज़ुक धागों से
मैं ख़ुशी बनाया करता हूँ।

Monday, March 02, 2009

I measure every grief I meet

I measure every grief I meet
(A Tribute to Emily Dickinson)

लम्बा नाटा, भारी हल्का
खुद नाप लिये मैं चलता हूँ
अपने दुख का नाप बना कर
औरों के दुख से मिलता हूँ ।

इनकी ये कल शाम की चोट -
या बड़ा पुराना घाव रिसा है ?
मेरा मुझको कुछ याद नहीं
हाँ दर्द बड़ा ये करता है

रोज़ जीने से क्या इनके
दिल का दर्द बढ़ता है ?
क्या ये बेबस होतें हैं जब -
मरने का जी करता है ?

बूढ़े दुख के होठों पर पर
कभी खुशी हँसती भी है -
जैसे तेल की याद में बाती
बुझती बुझती जलती सी है ।

ये बूढ़ा दुख जब और जीयेगा
क्या और बढ़ेगा, और हरेगा ?
या समय का दिल कुछ पिघलेगा, वो
क्या मरहम का काम करेगा ?

या बूढ़े दुख को बूढ़े दिल
तब तक अपना मान चुकेंगे ?
एक प्रेम ने मर कर दुख जन्मा था
क्या तब ये दुख को प्रेम करेंगे ?

या सोचेंगे मर कर दर्द से
निजात मिलेगी, चैन मिलेगा
पर दर्द तो अन्दर सीप गया है -
ये दर्द ना मौत के साथ मरेगा ।

एक प्रेम में पाया होता है
एक मोल लिया दुख होता है
बस मुठ्ठी में आने को हो जग
और हाथ कटे दुख होता है

इतना दुख को पढ़ता हूँ पर
जाने मेरा दुख कैसा दिखता है
बस समझो मेरे गलगोथा में
कुछ अकेलापन कम लगता है

जब इतने सलीब बंधे हुए हैं
औरों ने कंधो पर ढोए भी हैं -
दुख - लम्बे नाटे, भारी हल्के
शायद कुछ मेरे जैसे भी हैं ।

[गलगोथा* Golgotha is the place where Jesus was crucified.]

Above is an attempted Hindi translation of the infinitely superior original poem, I measure every grief I meet, by Emily Dickinson. I am surprised that we had none of her poems in our school curriculum. She is a great poetess and invariably touches the heart. In my list of favorite poems, her authored-by count will at least be thrice the second place candidates [Robert Frost and Rudyard Kipling]. And for someone who touches your heart with words like she does, her form is superb too. For example, during this translation, I just could not maintain the flow of thoughts as she had in her original. It's just ... too perfect.

I want to paste the original here, but versions on the web do not agree about the real text [yes, including the authoritative ones]. It is really surprising because the nuances are quite different based on which version you read. For example, this whole stanza is missing from most of on-line citations including Bartleby.

I note that Some – gone patient long –
At length, renew their smile –
An imitation of a Light
That has so little Oil –

Also, look at these differences in words:

Bartleby's version:
.. To note the fashions of the cross,
Of those that stand alone, ..
Poets.org version:
.. To note the fashions – of the Cross –
And how they're mostly worn – ..

Bartleby's version:
.. Or would they go on aching still
Through centuries above, ..
Poets.org version:
.. Or would they go on aching still
Through Centuries of Nerve – ..

Bartleby's version:
.. And whether, could they choose between,
They would not rather die
..
Poets.org version:
.. And whether – could They choose between –
It would not be – to die –
..

And there are more. It seems blasphemous, yet both are authoritative sources. For my translation, I used poets.org version, as it had the extra stanza which I wanted to include in my translation.

Saturday, February 21, 2009

Aajkal - आजकल

तू हर रोज़ जो खुदा को अर्ज़ीयाँ लिखता है

तू हर रोज़ जो ईबादत में मुखलिस हो झुकता है


तुझको मालूम है ना आजकल समय चीज़ है बड़ी

तेरे जैसों की खुदा के दरबार में भीड़ है बड़ी

झल्ला के फ़रिश्तों ने नया कानून घढ़ा है

उसके खेल के मैदानों में नया ऐलान करा है


अब अर्जीओं का, गुजारिशों का चर्चा नहीं होता

अब आँसूओं से लिखने वाले का लिखा नहीं मिटता


खुदा मसरूफ़ है

अब रोज़ रोज़ रोने वालों से वास्ता नहीं होता

उसके खेल के मैदानों में कोइ मोज्ज़ा नहीं होता

Wednesday, August 13, 2008

Kal maine dukh dekha - कल मैने दुख देखा

कल मैने दुख देखा

दो पैरों पे चलता था
थोड़ा बाहर, बड़ा अन्दर था
एक औरत था
गोरा चिट्टा सुन्दर सा

एक छोटा सा बच्चा ले कर
वो बाज़ार करता था
और बच्चे को चपत लगाकर
ना रोने को कहता था

बच्चे की चीखों से कुछ
कुछ बाज़ार बिगड़ता था
कैसी माँ है, कैसी माँ है
कुछ कुछ ऐसा कहता था

पर बच्चा तो छोटा था
उसका दुख भी छोटा था
उसके पीछे एक दुख था
बड़ा सम्भला - सम्भला सा

जो शायद कभी रोता था
और जिसके आसूँ सूख गये
बच्चे सा बिलखता था
और जिसके सपने गुम गये

अश्वत्थामा सा शापित जो
अपना शव खुद ढोता है
और मौका बस पाता नहीं
सो धीरे धीरे मरता है

मन तो बड़ा किया मेरा
उससे बातें करने का
हाथ पे उसके हाथ रख कर
कुछ मीठा कहने का

मन तो बड़ा किया मेरा
सूखे गाल छूने का
गले उसे लगा कर के
"होता है" ये कहने का

पर मैनें सोचा
घाव खुले हैं अच्छे हैं
मलहम से बढ़ने वाले
ये घाव हमेशा रिसते है

क्या कहेगा वो अपनी?
एक पल में जन्मा हूँ
दो बातों से पनपा हूँ
और अब सदीयाँ जीता हूँ?

क्या कहेगा दुख अपनी?
सपने टूटे मुझे दिला दो
और जो सपने न ढ़ूँढ़ सको तो
फिर से मुझे रोना सिखला दो?

सो उसकी अपनी किस्मत पर
मैनें दुख को छोड़ दिया
मन तो नहीं था मेरा पर
कुछ छूट गया, कुछ छोड़ दिया

कल, मैने दुख देखा

Thursday, August 07, 2008

ऐ खुदा

फ़ुर्सत मिले, तो तू भी कभी सुन तेरे ठुकराए हुए बच्चों का कहा

फ़ुर्सत मिले, तो लम्हे थोड़े से मेरे नाम कभी करना ऐ खुदा


खाली आँखों को मेरी, देने को तेरे पास टूटे ख्वाब भी नहीं

मेरी झोली तो चलो ठीक मगर, खाली खाली तेरा दामन है खुदा


तेरी दुनिया से, तेरे लोगों से, तुझे इतनी मोहब्बत क्यों है

बड़े सालों से ये सोचता हूँ, कैसे बन जाऊँ तेरी दुनिया मैं खुदा


Monday, May 07, 2007

Wo Hai

वो है


वो जो बारिश का पहला

मेरे चेहरे पर, गिरता है छींटा

वो ही तो है


धूर्त है बड़ा

छिप के चोरों की तरह

बादलों के पीछे से घात लगाये रहता है


की कब मैं निकलूँ

और वो गिरे


और वो जो सुबह सुबह

मेरे बालों में, उलझता है उजाला

वो ही तो है


उसको भी मेरी तरह

सुबह अच्छी लगती है

खिड़की की दरारों से झांकता रहता है


की कब मैं जागूँ

और वो उलझे


और वो जो बाहर हवा है

वो हँस रहा है ज़ोर से, ताक लगाये है मेरी

वो ही तो है


सोचता है

मुझे मालूम नहीं

वो मौसम बन के बिखरा है पूरे आसमान में


की कब मैं देखूँ

और वो छू ले



Friday, August 11, 2006

Amol Palekar

This poem reminds me of Amol Palekar movies. Hence the title.

मेरी छोटी सी कालोनी में एक छोटा सा लॉन है

पच्चीस फ़ीट चौड़ा
कुछ चालीस फ़ीट लम्बा
ज़्यादा बड़ा नहीं विस्तार में

अक्सर मैं सोचा करता हूँ, "दुनिया तो गोल है,
हर शाम फिर कैसे आ सिमटती है,
इस चौकोर से आकार में?"

[Update: I translated this poem into English and it is available as the next post. ]

Friday, February 24, 2006

Value System "buddha" - "वेल्यू सिस्टम" बुड्ढा

खून जवान, पर "वेल्यू सिस्टम" बुड्ढा
कर सीना चौड़ा और सर ऊँचा
(मुझे पैसों की बड़ी ज़रूरत है)
मैं अपना सपना बेचने, बाज़ार पहुँचा

सोचा सपना मेरा प्यारा है, सबको सुनाऊँगा
थोड़ा सपना बाँटूंगा, थोड़ा पैसा पाऊँगा
होंगे नये दोस्त, नयी दुनिया, नयी किस्मत
करूँगा मेहनत, मिल बाँट कर खाऊंगा ।

यार, सर, मैडम सब मिले, नई दुनिया हमें बड़ी रास आई -
एक महीने में मार ली हमनें, सारे जीवन की मुस्काई
फिर ट्रेन से तेज़ धड़्कते दिल के साथ
सर जी को सपने की 'प्रेज़ेंटेशन' दिखाई -

इधर सर जी का माथा सिमटे, इधर हमारा डर डोले
पर फिर सर जी के होंठ हिले, भगवान प्रसन्न हुए, बोले -
"हम तेरे दोस्त हैं, 'डील' बिल्कुल 'फ़ेयर' करेंगे
बस साथ तेरा ज़मीर दे दे, फिर पैसे चाहे जितने जो ले"

ज़मीर की भी कीमत? ये 'डील' हमारी समझ ना आई
सही गलत की कदराई, हम तो करते हैं भाई
सो हमने सर जी से कहा "जी ज़मीर 'इज़ नाट फ़ोर सेल'"
और सर जी ने कर दी हमारी, रस्ता नपाई!

सब में होता है एक सर्वहितैषी गुण; दिल मेरा डोला -
"फ़ोर वन्स गुड" को उसने "फ़ोर मेनी'ज़ बेटर" से तोला
साहस की कमी ने, लिया द्विधा का रूप
और भीत पुरुष मेरे मन का, चित्कार कर बोला -

"नहीं नहीं सर जी, कुछ तो दया कीजिये
इस निरे मूर्ख को क्षमा कीजिये ।
इन पैसों की मुझे बड़ी ज़रूरत है
ज़मीर तो क्या, आप आत्मा भी लीजीये ।

जो दाम कहें आप, उस दाम पर दूंगा
बेच दूंगा ये आत्मा, पितरों से लड़ लूंगा
इन पैसों की मुझे बड़ी ज़रूरत है
आप कहें बस, आपके नाम ये जान कर दूंगा ।"

यूं टूट ही जाता मैं, जैसे कच्चे का धागा
पर भीत पुरुष मेरे मन का, डर 'उस' से भागा
'उस' के आगे क्या टिकता किसी रूप में भय
अभिमन्यू मेरे अन्दर का, जैसे सपने से जागा

मुठठियों को भींच कर, साँस अपनी खींच कर
वो गरजा मुझ पर, "रे कायर! होश कर"
और बोला आहिस्ते से, "भूल मत मनुज है तू!
भूल मत मनुज है तू, पग उठा कुछ सोच कर"

"ये मृत्यु है। तू मृत्यु से मत हार मान
भूल कर भगवान को, स्वयं को पालनहार जान
डर रहा है किससे तू? कौन तुझे छू सकता है ?
स्वयं को विजयी जान, तू आप को प्रहार मान"

"तू शान्त है तो शुभ्र है, तू उग्र है तो लाल है
अग्नि है विकराल है, आन्धियों सा काल है
कीर्ती भव, यशी भव; जयी भव, विजयी भव
और याद रख सही है जो, सत्य उसकी ढाल है ।"

"तू धर्म है, तू युद्ध कर, तू वीर है, प्रहार कर
चिन्घाड़ कर प्रतिकार कर; नर है तू न हार कर
न मौन रह अन्याय सह - कुछ दम्भ कर! कुछ मान कर!
है ब्र्ह्म तू, तू विष्णु है; शिव है तू, सँहार कर ।"

"तू लौट मत यूँ हार कर, निकला था तू कुछ ठान कर
ठीक है, तू लघु सही; मुझ अभिमन्यू का तो ध्यान कर
अन्तस में तेरे रहता हूँ मैं, इतना ही तो कहता हूँ मैं -
न मौन रह अन्याय सह - कुछ दम्भ कर! कुछ मान कर!"

अभिमन्यू रहा जीता सदा, हर युद्ध में, हर काल में
कहाँ से टिके उसके आगे, भय किसी भी हाल में ?

तो अब मैं उठता गिरता हूँ; गिरता हूँ, फिर से उठता हूं
चिर-धर्मयुद्ध है लड़ता हूँ, अभिमन्यू की जय करता हूँ ।