Tuesday, April 27, 2010

हे भविष्य

हे भविष्य

इस समय की मुठ्ठियों से
आज का पल पल बिखरता,
वर्तमान की मृत्यु देख,
देख कैसे कल सिहरता!

इन प्रलय की आहटों से
न सोच की मैं डर रहा हूँ,
मैं कवि हूँ, हे भविष्य!
मैं प्रश्न तुझसे कर रहा हूँ -

ये बता झुलस रहे
इस कल से मैं डरता रहूँ?
या जल के कुन्दन बन रहे
एक कल की कल्पना करूँ?

ये बता विद्रोह को
मैं मन में अपने मार दूँ?
या सुलगते सागरों को
विस्फोटकों से ज्वार दूँ?

जीव हो कर मृत्यु से
हार क्या मैं मान लूँ?
जीव हो कर मृत्यु से
हार कैसे मान लूँ?

चल कि दोनों मिल के हम
कुछ मुक्ति दे प्राणों को,
कुछ हवा दे शोलों को,
कुछ गति तूफानों को,

क्रांति हो कुछ इस तरह
कुछ इस तरह आ जाय प्रलय -

विध्वंस का निर्माण में
कुछ इस तरह हो जाय विलय -

कि बस अग्नि हो बच सके,

वह सूर्य हो जो ना जले,

भस्मी हो जाय सब यहाँ,

रहे तो केवल सत्य रहे ।

रहे तो केवल सत्य रहे

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