Friday, February 24, 2006

Value System "buddha" - "वेल्यू सिस्टम" बुड्ढा

खून जवान, पर "वेल्यू सिस्टम" बुड्ढा
कर सीना चौड़ा और सर ऊँचा
(मुझे पैसों की बड़ी ज़रूरत है)
मैं अपना सपना बेचने, बाज़ार पहुँचा

सोचा सपना मेरा प्यारा है, सबको सुनाऊँगा
थोड़ा सपना बाँटूंगा, थोड़ा पैसा पाऊँगा
होंगे नये दोस्त, नयी दुनिया, नयी किस्मत
करूँगा मेहनत, मिल बाँट कर खाऊंगा ।

यार, सर, मैडम सब मिले, नई दुनिया हमें बड़ी रास आई -
एक महीने में मार ली हमनें, सारे जीवन की मुस्काई
फिर ट्रेन से तेज़ धड़्कते दिल के साथ
सर जी को सपने की 'प्रेज़ेंटेशन' दिखाई -

इधर सर जी का माथा सिमटे, इधर हमारा डर डोले
पर फिर सर जी के होंठ हिले, भगवान प्रसन्न हुए, बोले -
"हम तेरे दोस्त हैं, 'डील' बिल्कुल 'फ़ेयर' करेंगे
बस साथ तेरा ज़मीर दे दे, फिर पैसे चाहे जितने जो ले"

ज़मीर की भी कीमत? ये 'डील' हमारी समझ ना आई
सही गलत की कदराई, हम तो करते हैं भाई
सो हमने सर जी से कहा "जी ज़मीर 'इज़ नाट फ़ोर सेल'"
और सर जी ने कर दी हमारी, रस्ता नपाई!

सब में होता है एक सर्वहितैषी गुण; दिल मेरा डोला -
"फ़ोर वन्स गुड" को उसने "फ़ोर मेनी'ज़ बेटर" से तोला
साहस की कमी ने, लिया द्विधा का रूप
और भीत पुरुष मेरे मन का, चित्कार कर बोला -

"नहीं नहीं सर जी, कुछ तो दया कीजिये
इस निरे मूर्ख को क्षमा कीजिये ।
इन पैसों की मुझे बड़ी ज़रूरत है
ज़मीर तो क्या, आप आत्मा भी लीजीये ।

जो दाम कहें आप, उस दाम पर दूंगा
बेच दूंगा ये आत्मा, पितरों से लड़ लूंगा
इन पैसों की मुझे बड़ी ज़रूरत है
आप कहें बस, आपके नाम ये जान कर दूंगा ।"

यूं टूट ही जाता मैं, जैसे कच्चे का धागा
पर भीत पुरुष मेरे मन का, डर 'उस' से भागा
'उस' के आगे क्या टिकता किसी रूप में भय
अभिमन्यू मेरे अन्दर का, जैसे सपने से जागा

मुठठियों को भींच कर, साँस अपनी खींच कर
वो गरजा मुझ पर, "रे कायर! होश कर"
और बोला आहिस्ते से, "भूल मत मनुज है तू!
भूल मत मनुज है तू, पग उठा कुछ सोच कर"

"ये मृत्यु है। तू मृत्यु से मत हार मान
भूल कर भगवान को, स्वयं को पालनहार जान
डर रहा है किससे तू? कौन तुझे छू सकता है ?
स्वयं को विजयी जान, तू आप को प्रहार मान"

"तू शान्त है तो शुभ्र है, तू उग्र है तो लाल है
अग्नि है विकराल है, आन्धियों सा काल है
कीर्ती भव, यशी भव; जयी भव, विजयी भव
और याद रख सही है जो, सत्य उसकी ढाल है ।"

"तू धर्म है, तू युद्ध कर, तू वीर है, प्रहार कर
चिन्घाड़ कर प्रतिकार कर; नर है तू न हार कर
न मौन रह अन्याय सह - कुछ दम्भ कर! कुछ मान कर!
है ब्र्ह्म तू, तू विष्णु है; शिव है तू, सँहार कर ।"

"तू लौट मत यूँ हार कर, निकला था तू कुछ ठान कर
ठीक है, तू लघु सही; मुझ अभिमन्यू का तो ध्यान कर
अन्तस में तेरे रहता हूँ मैं, इतना ही तो कहता हूँ मैं -
न मौन रह अन्याय सह - कुछ दम्भ कर! कुछ मान कर!"

अभिमन्यू रहा जीता सदा, हर युद्ध में, हर काल में
कहाँ से टिके उसके आगे, भय किसी भी हाल में ?

तो अब मैं उठता गिरता हूँ; गिरता हूँ, फिर से उठता हूं
चिर-धर्मयुद्ध है लड़ता हूँ, अभिमन्यू की जय करता हूँ ।

2 comments:

Anonymous said...

its really good..
it wud hav been interesting if u had carried the informal n light vein of poetry throughout..the tone changes abruptly n unexpectedly in the middle..

the thots r very well put.. ur whole philosophy comes out in it..
i specially liked these lines

भूल जा भगवान को, स्वयं को पालनहार जान

स्वयं को विजयी जान, तू आप को प्रहार मान

न मौन रह अन्याय सह - कुछ दम्भ कर! कुछ मान कर

तू लघु सही; मुझ अभिमन्यु का तो ध्यान कर

Pooja said...

actually the three tones were deliberate .. to depict three people and their voices .. me, the "bheet purush mere mann ka", the "abhimanyu mere andar ka" . Apparently only two tones came out clearly and those two also failed to come out as different poeple talking to the reader.
My favorites were in bold :)