Friday, July 16, 2010

Addition to Niyati II

Stanza three of the old Niyati poem, which already had stanza two:

मैं धीमे धीमे बढ़ता हूँ
वो ताने दे सताती है -
थोड़ा आगे जमता हूँ
तो पीछे आग लगाती है ।

मैं सोलह सपने सजता हूँ
वो शोर बड़ा मचाती है -
मैं उठता गिरता उठता हूँ
वो फिर से मुझे गिराती है ।

पर गिर कर फिर से उठने की
मैं शर्त लगाया करता हूँ ।

पानी के नाज़ुक धागों से
मैं ख़ुशी बनाया करता हूँ

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