Addition to Niyati II
Stanza three of the old Niyati poem, which already had stanza two:
मैं धीमे धीमे बढ़ता हूँ
वो ताने दे सताती है -
थोड़ा आगे जमता हूँ
तो पीछे आग लगाती है ।
मैं सोलह सपने सजता हूँ
वो शोर बड़ा मचाती है -
मैं उठता गिरता उठता हूँ
वो फिर से मुझे गिराती है ।
पर गिर कर फिर से उठने की
मैं शर्त लगाया करता हूँ ।
पानी के नाज़ुक धागों से
मैं ख़ुशी बनाया करता हूँ ।
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