Addition to Niyati
This is an addition to the earlier Niyati poem. It already has two paras. I'd insert this one into the middle.
जब मैं थक सा जाता हूँ
वो दया ज़रा दिखलाती है -
"चल दिया खेलने, खेल तू"
कहती है, इतराती है ।
मैं मीलों पानी ढोता हूँ
वो धूप बड़ा चमकाती है -
मैं महीनों अंकुर बोता हूँ
वो पल में फसल जलाती है ।
हर सावन मैं भी बारिश की
पर आस लगाए रहता हूँ ।
पानी के नाज़ुक धागों से
मैं ख़ुशी बनाया करता हूँ ।
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